लहरों का प्रेम: निर्भय पाण्डेय
'लहरों का प्रेम' कवि की एक ऐसी रचना है जिसमें लहरों के रूप में उस प्रेम की अभिव्यक्ति को दर्शाया है जो लेने का नहीं सिर्फ देने को समर्पित है. रेतों की निष्ठुरता के बावजूद लहरें अपने प्रकृति को नहीं भूल पाती .

समन्दर के किनारों का रेत,
बार-बार भिंगोया जाता है लहरों के प्रेम से।
लहरें आती हैं,
प्रेममय स्पर्श से छूकर,
आहिस्ता झकझोरती हैं,
इठलाते हुए, बलखाते हुए।।
किनारों का रेत डूब जाता है लहरों के प्रेम में।
लहरें वापस उतरने लगती हैं।
फिर से आने के वादे के साथ।।
यह प्रेम का चक्र है।
अनंत में नहीं, अपनी नश्वरता में नहीं।
लहरों को प्रेम के अलावे कुछ आता ही नहीं।
रेत ने समय के चक्र से परे सिर्फ प्रेम पाया है।
पर लहरों के हिस्से में सिर्फ रेत की निष्ठुरता है।
रेत ने लहरों के प्रेम को स्वीकार नहीं किया,
इसके बावजूद लहरों ने किनारों तक आना नहीं छोड़ा है।
वो कल फिर से आयेंगी प्रेम बरसाने।।